Monday 8 May 2017

life of joy

मैं अकेला मेरा मन अकेला
यह शाम अकेली यह वृक्ष अकेला
इस एकांत वृक्ष के नीचे बैठ मैं
प्रतिदिन की भांति ढलते सूरज को
निराश भाव से देख रहा हूँ
एक और दिन बीत गया है किन्तु
तुम नहीं आयी, तुम नहीं आयी
निराशा से भरा हुआ
हृदय कुछ भारी-भारी सा है
आती जाती थकी हुई-सी
सांसे हैं बोझल-बोझल
रूंधा हुआ असहाय कंठ
करूण स्वर में तुम्हे बुलाता है
पुकार का किन्तु उत्तर नहीं आता है
हताश मन चाहे कि मैं
उड़ कर पास तुम्हारे जांऊ
गले तुम्हारे लग कर मैं
सारा प्रेम नैनों से बरसाऊँ
भर दूँ तुम्हारा आंचल
इन अटल अनुराग के मोतियों से
प्रतीक्षा की सीप ने जिन्हें
रचा है वर्षों के कष्टों से
इन्ही मोतियों को पाकर कदाचित
तुम आंक पाओगी मेरे प्रेम के मोल को
सहसा यूँ लगता है कि तुमने
मेरे हाथों को छुआ अभी-अभी
मैं चौंक विचारों से निकलता हूँ
तुम्हारे स्पर्श की कल्पित अनुभूति से ही
मुखमंडल आभावान हो उठा
इस एकांत वृक्ष के पत्तो से
कोयल की मीठी कूक सुनाई दी
ढलते सूरज में भी आशा किरन दिखाई दी
बिना तुम्हारे दिन बीत रहे पर
जो प्यार मैं तुम्हे दे नहीं पाता
प्रतिदिन वो बढ़ कर दूना हो जाता

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